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बिखरे पड़े हैं ख़्वाहिशों के पन्ने चिथड़ों में…
जज़्बातों की आँधी, कुछ इधर… कुछ उधर लिए जा रही है…

जो कमबख्त बेख़ौफ़ उड़ भी नहीं पा रहे…
बेदर्दी से कुछले जा रहे हैं… कुछ अपनों के ही पैरों तले…

*

खर्च के लिए अब सिर्फ शब्द ही बचे है…
पैसों ने तो कबसे नाता तोड़ लिया हमसे | 

उन्हें क्या सुनाएँ अपनी तकलीफ-ए-रूहानी…
जो अक्सर कहते हैं… हमें साँस लेने तक की फुर्सत नहीं…

ज़िंदगी को मात देने का ज़िक्र…
अक्सर किया मैखाने में…
निकला बाहर तो…
दूसरों के सहारे निकला…

चादर में इतनी सिलवटें दिख रही,
ज़रूर बेचैनियों की करवटों ने बीती रात अपने निशान छोड़े हैं।

*

निराशावाद की तो हद ही हो गई…
अब तो कोई लाइक भी करता है तो लगता है…
ठेंगा दिखा रहा है…

 *

क्यों मखौल उड़ा रहे हो…
ज़िंदगी के मारे का हाल पूछकर…
पूछना ही है तो किसी दीवाने से पूछो…
जिसने ज़िंदगी से प्यार किया है कभी…

 *

पत्थर बैठा था राह पर,
इंतज़ार में किसी के…
कोई गुस्से में ही सही,
ठोकर मार, आगे पहुँचा दे उसे।

उठा कर उछालेगा कोई,
करता इंसान पे इतना यकीन कैसे।
नफरत की ही तो चाहत थी,
कहाँ वो प्यार माँग रहा था किसी से।

ठोकर मारना ज़्यादा आसान है,
ये अनुभव सिखा गया था उसे।
एक ही जगह बैठे-बैठे,
बेबस सा हो गया था खुद से।

कोई ठोकर मार दे,
बस इसी इंतज़ार में था कब से…
आगे का नज़ारा अच्छा है…
ऐसा हवा फुसफुसा गई थी उससे।

 *

कुछ परेशान सा…
दिमाग, दिल के घर पहुँचा…
बोला…
मुझे कुछ दिन यहाँ रहने दो…
वहाँ चैन से जीने नहीं दे रहे मुझे…
बहुत सवाल करते हैं सब… बेवजह।

यहाँ कुछ दिन सुकून से बिताऊँगा…
कुछ सीखूँगा, कुछ अपनी सुनाऊँगा।
तुम जो कहोगे मैं वैसा करने को तैयार हूँ,
बस कुछ दिन यहाँ रहने दो,
मैं इन बेतुके सवालों से परेशान हूँ।

दिल ने कहा, वो सब तो ठीक है,
पर वहाँ किसे छोड़ आए हो,
कौन करेगा वहाँ की रखवाली।

दिमाग ने दिल पर हाथ रखकर कहा…
खाली छोड़ आया हूँ…
जिसे जो चाहे, वो उसमें उसे बसा ले!

*

कुछ लिखना चाह रहा हूँ,
अपनी बेचैनियों को शब्दों में…
पीरोना चाह रहा हूँ…
कुछ लिखना चाह रहा हूँ।

शब्द शायद,
मेरी बेचैनियों का बोझ नहीं उठा पा रहे…
कलम काँप रही,
शब्द छिपे हैं सहमे कहीं…

अपने आत्मविश्वास को अंधेरे से,
निकालना चाह रहा हूँ…
अगर बेचैनियाँ इजाज़त दें…
तो कुछ लिखना चाह रहा हूँ।

*

अच्छा हुआ, साँस लेने से पहले सोचना नहीं पड़ता,
दुनिया में ज़्यादातर लोगों को भूलने की बीमारी है।

 *

कुछ अच्छी यादें संजो रखा है,
काली रात के तारे बना कर…

जब सब ओर अंधेरा दिखता है…
उन्हें टिमटिमाता देख,
…दिल बहला लेता हूँ।

कुछ छूट रहा है शायद…
कुछ अपना… बहुत अजीज़…

अंधकार इतना है कि, कुछ दिख नहीं रहा ठीक से…
उजाले का कण तो दूसरी ओर है…
ये अंधकार की कसी बाजुएँ मुझे इस ओर क्यों लिए जा रही हैं…

वो कण भी अब अन्नू की तरह बोझिल हो रहा है…
मेरी उम्मीद से कोसों दूर…

चलो ठीक ही हुआ शायद…
रुख़्सत हुई अब जीने की ख्वाहिश भी मेरी…

 *

मध्यांतर तक पता ही नहीं चला
ज़िंदगी की कहानी क्या है…
किरदारों को इतना महत्व देता रहा कि…
कब खुद को ही कहानी से अलग कर दिया…
पता ही न चला…

 *

चारों ओर सन्नाटा है…
किसी की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही मुझे…
या तो मैं बहरा हो गया हूँ…
या किसी को शिकायत नहीं आज मुझसे…

*

उनसे बात करने में एक बेचैनी सी होती है शब्दों के संगीत में…
दिलों के तार उलझ गए हैं शायद…
किन्हीं तीखे शब्दों में… बेमायने…

क़तरा भर ही स्याही बची है कलम में…
अभी-अभी ही तो लिखने का सुरूर आ रहा था… बेपरवाह…

*

जब “मैं” था
मैं नहीं था…
जब मैंने “मैं” को मारा
अब मैं सब कुछ था | 

*

कैसे समझाएँ किसी प्यासे को…
प्यास बुझाने का राज़…
सारा समुद्र अंदर है…
और वो बाहर… बूँद भर की तलाश कर रहा…

*

उन्हें क्या समझाएं रिश्तों की एहमियत, 
ज़िन्दगी के बहीखाते में जिनके,
पैसों का प्रॉफिट, रिश्तों के लोस से ज्यादा महत्व रखता है.

*

विद्रोह मन का भाप लिया था मैंने।
उसे फुसफुसा के बोला…
तू जितना भी कोशिश कर, लक्ष्य से भटकाने का मुझे…
यह समझ ले…
तू गुलाम है… आक़ा नहीं…

 *

जब मैं रो रहा था…
तो कंधा देने ना आया कोई।
अब जब मैं मर गया…
तो जनाज़ा उठाए रोये आ रहे हैं।